Sunday, 17 September 2017

अजनबी शहर में बर्मा के लोग

मुहब्बतों के दुश्मन, नफरतों के दोस्त
अजीब शहर अजीब लोग,
होठों पर मुस्कुराहट, दिल पर आना की काई
यह कैसा शहर यह कैसे लोग
लावारिस पानी में सहमे माओं के कोख
अजनबी शहर में बर्मा के लोग
छा जाएं काले बादल तो हो जुगनुओं का शोर
काश हो कोई ऐसा शहर, ऐसे हों लोग.
– फैज शाकिर

रफूगर मेरा दिल रफू कर दो

शिकस्त- ए- ख्वाब के बाद
मुस्कुराने का हुनर कहां से लाऊं,
रफूगर मेरा दिल रफू कर दो.
काजी ए शहर ने किया है जालिम के हक में फैसला,
मजलूम को जहर का प्याला दे दो.
जो दूसरों की बुराई करते नहीं थकते हैं फ़ैज़,
उन्हें एक अच्छा सा आईना दे दो.
– फैज शाकिर

सब की तरह

जालिम के खिलाफ लब खोलूं
या सब की तरह खामोश रहूं,
महबूब के दर पर अश्क बहऊं,
या मजलूमों की आवाज बनूं,
आसान लफ्जों में नज़म लिखूं
या कठिन शब्दों का इस्तेमाल करूं.
– फैज शाकिर

चलो आखरी रस्म निभा दें

जुल्म की छाओं में ,
जब वह पत्थरों से संगसार हुआ,
तुम भी चुप थे,
मैं भी चुप था,
चुप था सारा संसार.
देखो अब वह इस दुनिया से जा रहा है,
चलो आखरी रस्म निभा दें ,
कांधा दे दें,
दो -चार आंसू तुम बहा लो,
दो -चार आंसू मैं बहा लूं.
– फैज शाकिर

Sunday, 10 September 2017

इस दौर का फरिश्ता भी गुनहगार है

पवित्रता के मुद्दे पर कल तक जो आवाम से मुखातिब था,
उस पर आबरु रेजी का इल्जाम है,
रहनुमा जो तकरीर करते नहीं थकता है इंसानियत पर ,
उस पर अपने ही शहर को आग लगाने का इल्जाम है,
यहां इंसान बेवफा है मगर हैवान वफादार है,
इब्लीस तो इब्लीस, इस दौर का फरिश्ता भी
गुनहगार है.
- फैज साकिर

आंखों में बिलकते लहू


आंखों में बिलकते लहू देख,
कातिल का खंजर थर थर कांप गया,
राज छुपाया जिसका मैंने दुनिया से,
उसी ने मुझे सरेआम बदनाम किया,
बर्फीली सर्दियों की एक रात जब ठंड
लगी मेरे महबूब को,
मेरा दिल जलाकर उसने अलाव ताप लिया,
मेरा हमसफ़र, मेरा हमनवा, जब मुझे बीच राह में छोड़ कर चला गया,
फिर भी ना जाने मैंने क्यों पटरियों पर बैठे बैठे उसका बहुत देर इंतजार
किया.
मानो मैं इंसान ना हुआ एक खिलौना हुआ
खेलते खेलते मुझसे उसने मुझको फिर से एक बार तोड़ दिया.
- फैज शाकिर

Sunday, 3 September 2017

मौत अब बस तेरा इंतजार है


रूह पर खरोच है,
जिस्म तार-तार है,
मौत अब बस तेरा इंतजार है,
अब आ भी जाओ ना,
कौन से जिंदा हैं हम ,
उन के जाने के बाद तो वैसे भी मुर्दा हैं हम.
- फैज शाकिर

Saturday, 2 September 2017

गांधी तुम इस मुल्क में वापस फिर कब लौट कर आओगे

गांधी तुम इस मुल्क में वापस फिर कब लौट कर आओगे ,
अंधी वतनपरस्ती से इस मुल्क को अब कब आजाद
कराओगे,
मौत तो एक दिन सबको आएगी, मरने वाले मर जाएंगे ,
मगर हिंदू मुस्लिम इस दुल्हन की दो आंखें हैं बापू तुम इनको कब
बताओगे ,
अखलाख और पहलू खां की लाशें देखो अब तक कफन में
लिपटी रखी हैं,
बापू दर्द -ए - निहां हमारा तुम इनको कब समझाओगे.
- फ़ैज़ शाकिर

मुस्कुराते आंसू

दर्द से कराहती , कोख को संभालती,
गिरती संभलती, एक गमजदा औरत,
तेज कदमों से ,अनजान रास्ते से ,
कहीं चली जा रही थी,
दुकान चल रहे थे, मकान जल रहे थे,
मजहब के नाम पर ,इंसान जल रहे थे,
एक अनजान दरवाजा,एक बेसुध पड़ी औरत,
हर तरफ खामोशी, हर तरफ सन्नाटा,
सन्नाटे को चीरती एक बच्चे की किलकारी ,
सीता के हाथों में मोहम्मद ,
आमिना के आंखों में मुस्कुराते आंसू ,
नफरत फैलाने वालों को अमन का पैगाम दे रहे थे.
- फ़ैज़ शाकिर