Saturday, 26 August 2017

मां के इंतजार में एक बच्चा उदास बैठा है

तेरे शहर से जाने के बाद,
अब भी किसी करिश्मे की उम्मीद में,
तुम्हारी पुरानी तस्वीरों के साथ,
एक आशिक उदास बैठा है,
जमी उदास बैठी है,
 आसमा उदास बैठा है,
 शहर के सभी दर-ओ-दीवार उदास बैठे हैं,
 शाम होने को आई है,
 आवाज दो परिंदों को,
 कि वह लौट जाएं अपने घर,
 मां के इंतजार में,
 एक बच्चा उदास बैठा है.
- फैज़ शाकिर

Tuesday, 22 August 2017

खुदा से डरता रहा और तुझको डराता रहा मैं

मकतल में पहुंचकर भी इक दीवाने की तरह,
तेरी कातिल निगाहों से निगाहें मिलाता रहा मैं.
हजारों मन्नतों के बाद जब तुम ख्वाब में आए,
सहर होने पर भी तेरी आगोश में सोता रहा मैं.
एक अनजान जजीरे पर जहां हम दोनों तन्हा थे,
खुदा से डरता रहा और तुझको डराता रहा मैं.
हिज्र की वह रात जो इक क़यामत गुजरी,
जख्म सीता रहा और खुद को समझाता रहा मैं.
एक मसीह जो ना कभी आया मेरी अयादत को,
उसी के वफा के नगमे सदा गुनगुनाता रहा मैं.
- फैज़ शाकिर



Sunday, 20 August 2017

जम्हूरियत को फना होने से अब कोई बचा ले

 सहाफियों के जमीर को अब कोई  जगा दे,
 जहाने-नौ के हर अखबार को अब कोई मजलूमों की आवाज बना दे,
 जिनमें हो  इतनी क़ुव्वत कि हिटलर सरकार गिरा दें,
 दिल्ली के तख्तो ताज को जो पल में हिला दें.
 जम्हूरियत को फना होने से अब कोई बचा ले,
 हर अख़बार सम्पादक का अब कोई गणेश शंकर विद्यार्थी को बना दे,
 जिन्हें ना मालूम हो की ईमान की कीमत  'फैज',
 उन्हें अब कोई पीर मोहम्मद मुनीस के बारे में बता दे.
- फैज शाकिर

Friday, 18 August 2017

तभी तुम आजाद कहलाओगे

क्या अब भी तुम इस उम्मीद में बैठे हो के कोई मसीहा आएगा,
जंजीरें तुम्हारी तोडेगा, तुमको आजाद कराएगा.
या तुम  मुंतज़िर हो किसी मूसा के ,
कि वह आएगा ,
बहरे अहमर मे तुम्हारे लिए एक नयी राह बनाएगा ,
इस दौर के फिरौन के जुल्मो सितम से तुम को आजाद कराएगा.
लेकिन क्या तुमने कभी पेड़ों  से झाँकते हुए सफेद चाँद को देखा है ,
वह अपने वजूद की जंग रोज लड़ता है ,
वह कब किसी मसीहा का इंतजार करता है.
उस सफेद चाँद की तरह तुमको भी अपनी मदद खुद ही करनी होगी ,
तुमको भी अपनी जंग खुद ही लडनी होगी ,
तुमको भी अपनी जंजीरें खुद ही तोड़नी होंगी,
तभी तुम आजाद फिजा में सांस ले पाओगे ,
तभी तुम आजाद  कहलाओगे.
- फैज़ शाकिर

Wednesday, 16 August 2017

उनकी एक तस्वीर पुरानी अब भी मेरे पास है

जो हर बात पर कहते थे हम तुम बिन पागल हो जाएंगे ,
वह मेरे पागल हो जाने पर न जाने क्यों खामोश हैं .
भूल गए वह कस्मे वादे भूल गए वह वसूले मुहब्बत,
 मगर मेरी आँखों की नींदे ना जाने मुझसे ही क्यों नाराज हैं.
जला दिए होंगे उसने अब तक शायद मेरे सारे खत,
मगर मुद्दत से उनकी एक तस्वीर पुरानी अब भी मेरे पास है
- फैज़ शाकिर

Monday, 14 August 2017

क्या आजाद हैं हम

रोटी के बदले लोगों को जहाँ धर्म परोसे जाते हों ,
जहाँ लहू की बारिश होती हो,
जहाँ खून से गलियां लथपथ हों ,
हिन्दू मुस्लिम आपस में जहां अब भी लड़ते रहते हों,
इंसानों के गोश्त जहाँ हैवानों से भी सस्ते हों,
जहाँ सरकार गहरी नींद में सोइ हो ,
जहाँ जालिम तख्त पर बैठे हों,
जहाँ मजलूमों की  खैर नहीं ,
जहाँ रात की कोई सहर नही ,
जहाँ  पाँव से चिमटी जंजीरे हों,
जहाँ आवाजों पर पहरे हों,
ऐ अहल-ए-वतन अब झाँक कर मेरी आँखों में ,
बस इक बार कहो क्या आजाद हैं हम.
- फैज शाकिर

Wednesday, 9 August 2017

मैं इंसान हूं , न हिंदू हूं न मुसलमान हूं

 मैं अपने शहर में भी चलूं तो दबे पांव चलूं,
 ना जाने कब कौन कहां घात लगाकर बैठा हो,
 ना जाने कब कौन मुझ पर वार करे,
 दैरो हरम के झगड़ों के सबब ना जाने कब ,
 यह शहर धुआं धुआं कर जल उठे,
 मैं इंसान हूं ,
 न हिंदू हूं न मुसलमान हूं,
 मेरे दो बच्चे हैं , एक बीवी है ,
 एक बीमार मां और एक बूढा बाप,
 न जाने कैसे अब कारोबार चले,
 अब मैं कैसे अपने शहर के गलियों में चलूं,
 मैं जीयूं भी तो अब डर डर कर जीयूं.
- फैज शाकिर

Monday, 7 August 2017

मोमबत्तियां जलाने से जुल्म कम नहीं हो होते

मोमबत्तियां जलाने से जुल्म कम नहीं हो होते,
हर शक्स को अपनी जंग खुद ही लड़नी पड़ती है,
रात तो अब भी होती है मगर नींद अब नहीं आती ,
करवटें जो बदलूं तो उसकी याद आती है,
हर तरफ अंधेरा है हर तरफ खामोशी है,
मगर मुझे न जाने क्यों रोशनी की एक किरण अब भी दिखाई देती है,
_ फैज शाकिर

गांधी तेरे सजर को अब बचाए कौन

औराके पारीना
जिन पर नक्श हो अशफाक -व- बिस्मिल के अफसाने,
इन दंगाइयों को अब दिखाए कौन,
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
इकबाल तेरा यह तराना अब गुनगुनाए कौन,
गरीबों का मसीहा जो खुद मगन हो रक्स बिस्मिल में,
उस से गरीबों को अब बचाए कौन,
जब सब रहनुमा मशगूल हो फिरका अराई,
गांधी तेरे सजर को अब बचाए कौन.
– फैज शाकिर

अब वह मजहब की बात करता है

कभी था जो जम्हूरियत का अलंबरदार,
अब वह इमरजेंसी की बात करता है,
रहनुमा जिस पर लाजिम था कि वह बात करें भूख और गरीबी की,
अब वह मजहब की बात करता है,
अखबार पढ़ने का दिल नहीं करता,
मीडिया अब हमारी नहीं तख्तनशीनों की बात करता है.
– फ़ैज़ शाकिर

जालिम में मसीहा देखूं

धड़कने होने को हैं बंद,
फिर भी उसका रास्ता देखूं ,
यह कैसी मोहब्बत है ,
के जालिम में मसीहा देखूं.
पैरों में जंजीरे लेकिन,
उससे मिलने की तमन्ना रखूं,
गैरों में मैं अपना ढूंढू,
और अपनों में मैं पराया देखूं.
– फैज शाकिर

तू जो रो दे तो एक दरिया हो जाए

तू जो रो दे तो एक दरिया हो जाए,
ये ख़ाक हैं , ख़ाक में मिल जायेंगे,
सितम करने वाले ,खुद फना हो जाएंगे,
मां तेरे आंसू यूं रायगां ना जाएंगे.
आसमां भी है शर्मिंदा इस बात पर,
क्यों नहीं वह रो पड़ा उस रात को,
छा रही थी हर तरफ जब काली घटा,
रो पड़ा था जिस घड़ी दीवार ए हिंदुस्तान.
– फैज़ शाकिर

गए दिन अब खामोश रहने के

कलम उठा ही लिया है ,
तो कुछ तो लिखना पड़ेगा,
सितम जब हद से गुजर जाए,
तो चीखना भी पड़ेगा.
जहर का प्याला हो सामने फिर भी,
तुम्हें अब अपने लबों को खोलना ही पड़ेगा,
गए दिन अब खामोश रहने के,
अब तो तुम्हें सुकरात बनना ही पड़ेगा.
इंकलाब -ए- फ्रांस पढ़ भी लो यारों,
के जालिमों से तुम्हें अपने हक के लिए लड़ना ही पड़ेगा,
उन्हें अगर अपनी ताकतों पे गुरुर ‘फैज़’,
तो तुम्हें भी अपने खुदा पे भरोसा करना पड़ेगा.
– फैज़ शाकिर

हर अमीर शख्स अब खुदा बना फिरता है

आसमानों के किताबों में तो बातें हैं इंसानियत की,
फिर क्यों वह शमशीर लिए फिरता है,
खीलकत-ए- शहर तुझसे क्या कहूं मौला,
इस शहर  हर अमीर शख्स अब खुदा बना फिरता है.
इक परिंदा जो कभी मेरी शाखों पर बैठा करता था,
मौसम -ए-खेजां में अजनबी बना फिरता है,
सिलसिला तोड़ना है तो तोड़ दे जालिम,
अब भी क्यों अपना बना फिरता है.
– फैज़ शाकिर

सरापा दर्द हूं पर शिकवा नहीं मुझको

पा – बजोला ही सही,
कूचा- ए- दिलदार में जाने की ख्वाहिश अब भी है.
पहले चिराग -ए – शब था, अब चिराग -ए – सहर हूं,
मगर उसका इंतजार अब भी है.
सरापा दर्द हूं पर शिकवा नहीं मुझको उससे फैज़,
मेर सेहरा में उसके कदमों के निशान अब भी हैं.
– फैज़ शाकिर

कौन रहा अब इस दुनिया में जो हिंदा की खताएं माफ करे

कौन रहा अब इस दुनिया में ,
जो हिंदा की खताएं माफ करे,
हर इंसान को गले लगाए ,
जात-पात का नाश करे,
कौन रहा अब इस दुनिया में
जो औरत की हक की बात करे ,
जो सामाजिक कुरुतियों पर जमकर वार करे,
खुद हो जिसकी उम्र 28 और वह 40 की विधवा औरत से निकाह करे,
कौन रहा अब इस दुनिया में ,
जो तायाफ में पत्थर खाकर भी ,
अमन व अमा की बात करे.
– फैज शाकिर

नेताजी

कड़ी धूप थी,
बहुत भूख लगी थी,
पर मेरी नजरें नेताजी को ढूंढ रही थी,
तभी अचानक चॉपर उतरा ,
कुर्ता झारा, गला खखारा,
और माइक संभाली नेताजी ने,
भारत माता के नारे लगवाए,
विपक्षी पार्टी पर शब्दों के कुछ बान चलाए,
और 2-3 मिनट में ही हिंदू मुस्लिम मुद्दे पर आए,
हम भी कौन से गांधी के चेले ठहरे ,
खूब लगाए नारे हम ने.
– फैज शाकिर

तुझसे बिछड़ा तो कुछ इस तरह बिखरा

तुझसे बिछड़ा तो कुछ इस तरह बिखरा,
के अब खौफ -ए -जवाल नहीं,
कड़ी धूप के सफर में ,
अब कोई अहबाब मेरे साथ नहीं,
सब ने मुंह मोड़ लिया,
कि अब मैं गरीब हुआ,
पर जो दिल मुतमईन न था ,
अब फकीर होकर मुतमईन हुआ.
– फैज शाकिर

लौटना चाहूं भी तो कैसे लौटूं

लौटना चाहूं भी तो कैसे लौटूं ,
साहिल पर अब कोई सफीना ना रहा,
मुसलसल शिद्दतो से इस तरह गुजरा हूं फैज़,
के जैसे मैं पत्थर हो गया आदमी ना रहा,
दौरे हाजिर में सब मीर जाफर हो गए,
अब कोई टीपू ना रहा कोई सिराजुद्दौला ना रहा,
सजायाफ्ता कैदी सफेदपोशों से बेहतर है,
के अब उसका कोई गुनाह ना रहा ,
मैंने जिन के वास्ते की अपनी जिंदगी तबाह ,
वह मेरे महरम ना रहे मैं उनका मोहतरम ना रहा.
– फैज शाकिर

हम प्यार सिखाना भूल गए

मंदिर तो बनाई तुमने भी ,
मस्जिद तो बनाई हमने भी,
पर दुर्भाग्य रहा इस मुल्क का,
के हम स्कूल बनाना भूल गए.
जाती तो बनाई तुमने भी ,
फिरका तो बनाया हमने भी ,
पर दुर्भाग्य रहा इस मुल्क का,
के हम लोगों को गले लगाना भूल गए.
गौरी तो बनाई उसने भी ,
अग्नि तो बनाई हमने भी,
पर दुर्भाग्य रहा हम दोनों का,
के हम लोगों को प्यार सिखाना भूल गए.
कमी तो रही कुछ तुम में भी,
कमी तो रही कुछ मुझ में भी,
पर तुम को मुझ पर इल्जाम लगाना याद रहा ,
और अपना कुसूर तुम भूल गए .
– फैज शाकिर

सुनो जाना

सुनो जाना,
मेरी एक दिली तमन्ना है,
के सपुर्द-ए-खाक होने पर भी,
तुम मेरे कब्र पर आना,
मोहब्बत पाक होती है,
यह वह गहरी बात है जाना,
के सब समझ नहीं सकते,
जमाने ने कब जुलेखा को समझा है,
के तुझको समझ लेंगे,
तो फिर एक इल्तजा तुमसे,
के जब आना तो घूंघट ओढ़ कर आना.
– फैज शाकिर

जिंदगी क्या थी

जिंदगी क्या थी कुछ उलझनो के बादल थे ,
अब अश्क बनकर मुझे कोई रुलाए नहीं ,
उसका खंजर अभी तक मेरे पास है ,
अब कोई कातिल मुझे कत्लगाह दिखाएं नहीं .
इस जमाने को फैज़ मेरा यही दर्श ,
अब दरवेश को कोई यूं लौट आए नहीं,
खुदा करे कि अब उनकी याद आए,
एक मसलूब को यूं कोई सताए नहीं .
– फैज शाकिर

मैं भी मिट्टी से बना हूं तुम भी मिट्टी से बने हो

मुख्तलिफ सोच कोई मजहबी लड़ाई तो नहीं है,
चलो अब लौट भी आओ की एक मुद्दत सी हुई है,
मरहला तय करते करते अब मैं थकने सा लगा हूं ,
मैं भी मिट्टी से बना हूं शायद तुम भी मिट्टी से बने हो.
– फैज शाकिर

मोहब्बत मिलन की मोहताज कहां होती है

आज भी चुपके से वह मेरे ख्वाबों में चली आती है ,
खुद भी रोती है और मुझको भी रुला देती है,
उसकी आंखों में मुझे अश्क बर्दाश्त नहीं,
पर उस की खामोश मिजाजी मुझे कहां भाती है,
सो हम अश्कों में ही गुफ्तगू किया करते हैं,
यह वह बोली है जो हर किसी को कहां आती है,
हीर से रांझे को, कैश से मजनू को जमाने ने मिलाया है कब,
पर मोहब्बत भी मिलन की मोहताज कहां होती है,
अकल जिनकी जितनी छोटी है ‘फैज’,
वह मुहब्बत को हवस का नाम देते हैं,
पर दरहकीकत हव्वा की हर बेटी तवायफ कहां होती .
– फैज शाकिर