Tuesday, 22 August 2017

खुदा से डरता रहा और तुझको डराता रहा मैं

मकतल में पहुंचकर भी इक दीवाने की तरह,
तेरी कातिल निगाहों से निगाहें मिलाता रहा मैं.
हजारों मन्नतों के बाद जब तुम ख्वाब में आए,
सहर होने पर भी तेरी आगोश में सोता रहा मैं.
एक अनजान जजीरे पर जहां हम दोनों तन्हा थे,
खुदा से डरता रहा और तुझको डराता रहा मैं.
हिज्र की वह रात जो इक क़यामत गुजरी,
जख्म सीता रहा और खुद को समझाता रहा मैं.
एक मसीह जो ना कभी आया मेरी अयादत को,
उसी के वफा के नगमे सदा गुनगुनाता रहा मैं.
- फैज़ शाकिर



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