आसमानों के किताबों में तो बातें हैं इंसानियत की,
फिर क्यों वह शमशीर लिए फिरता है,
खीलकत-ए- शहर तुझसे क्या कहूं मौला,
इस शहर हर अमीर शख्स अब खुदा बना फिरता है.
इक परिंदा जो कभी मेरी शाखों पर बैठा करता था,
मौसम -ए-खेजां में अजनबी बना फिरता है,
सिलसिला तोड़ना है तो तोड़ दे जालिम,
अब भी क्यों अपना बना फिरता है.
– फैज़ शाकिर
फिर क्यों वह शमशीर लिए फिरता है,
खीलकत-ए- शहर तुझसे क्या कहूं मौला,
इस शहर हर अमीर शख्स अब खुदा बना फिरता है.
इक परिंदा जो कभी मेरी शाखों पर बैठा करता था,
मौसम -ए-खेजां में अजनबी बना फिरता है,
सिलसिला तोड़ना है तो तोड़ दे जालिम,
अब भी क्यों अपना बना फिरता है.
– फैज़ शाकिर
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